कैसी यह निर्लज्जता,
फैशन,अंग प्रदर्श।
आमंत्रण अपराध को
हीन, भ्रष्ट आदर्श।।
आजादी के नाम पर
जघन, कुचों का शो।
मातृशक्ति रमणी बनी
रमण हुआ ,क्यों रो।।
देह छरहरी, नग्न कटि
डैमेज वसन कराय।
चिक्कण अंग प्रदर्शनी
क्यों न काम जगि जाय।।
कुछ कुलच्छनी चितवनें
कुछ माडर्न स्वभाव।
कुछ अतृप्तता,रति विषय
फिसलति कीच बहाव।।
संयम को गिरवीं रखे
कर्ज लिए व्यभिचार।
एक ब्याज में ढह गई
वह कुलवंती नार।।
भोग रोग है दाद सा
खुजलावै सुख पाय।
पर छल्ला इस कोढ़ का
छुवत,बढ़त ही जाय।।
उद्दीपन बन अंग को
उद्दीपक सा ढाल।
उच्चाटन मत कर सखी
होते यौन बवाल।।
Aapko apni soch or mansika pe kaam krni ki jarurat hai
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